रविवार, 5 जून 2011

दुआए....


रोजाना कि तरह आज भी मै अपने ऑफिस जाने तैयार हुई.जो कि मेरे शहर से 40 कि.मी. दूर एक छोटी सी जगह डोंगरगढ़ है.रोज कि तरह मेरी ट्रेन आई...कई साल कि निरंतर प्रैक्टिस ने हम अप-डाउनरो को बैठने कि जगह ढूंढ्ने मे माहिर बना दिया है,जगह कि तलाश करते हुए मेरी निगाह एक खाली जगह पर टीक गई,और ट्रेन चल पड़ी....कुल नौ पुरूषो के बीच मै और एक लड़की भी थी,जो शायद उन्ही मे से किसी एक कि बेटी थी.उसके पिता ने मुझसे सवाल किया बिटिया कही जॉब करती हो...? मैने मुस्कुराते हुए हां मे सिर हिला दिया....उसी महाशय ने मुझे बैठने कि जगह जो दी थी....थोड़ी ही देर बाद वही रोज कि तरह मांगने वालों कि लाइन लगने लगी...सबसे पहले दो मुस्लिम फकीर आए,जो हाथ मे हरी चादर लेकर जोर-जोर से सारी दुआएं पड़ रहे थे....जिसकी सच मे मुझे जरूरत है....मसलन....बड़ी नौकरी,तरक्की,रूतबा आदि....तभी मैने अपने पर्स मे पड़े सबसे छोटे नोटो के बारे मे सोचना शुरू किया....पर्स मे देखा तो बड़े नोटो के बीच मे एक दस का नोट और एक रूपये का सिक्का मिला.मैने मन ही मन सोचा इतनी बड़ी दुआओं को पाने के लिए एक रुपया थोड़ा कम है,मैने झट से दस का नोट निकाल कर उनकी चादर मे आमीन बोलते हुए डाल दिया.....तभी दोनो फकीरो मे से एक ने बिस्मिल्लाह कहा.....शायद आज कि यह उनकी पहली भेंट रही होगी.मै भी मन ही मन खुश हुई चलो सबसे पहली और ताजी दुआएं मुझे ही मिलेगी. बस क्या था मुझे जगह देने वाले महाशय को यह जरा भी पसन्द नही आया. उन्होने मुझे समझाना शुरू किया - 'क्या बात है बहुत दया दिखा रहे हो'.....ये तो इनका रोज का धन्धा है,पूरे पैसों कि दारू पी जाते है....नकली लोग है....और बाकि बैठे आठ लोगो ने भी उनका भरपूर साथ दिया. मुझे वो सारी बाते समझाने लगे जो लोगों को पैसे देते वक्त मै पहले भी सुन चुकी हूं.दुसरे अंकल ने कहा 'अब देखना तुमने जो पैसे दिये है ना उससे वो दारू पी जाएंगे, जब उन्हे लगा कि वो मुझे समझाने मे सफल हो गये है,तो वे दूसरे विषय पर बात करने लगे...उनकी बातो को सुनकर मै मन ही मन मुस्कुराने लगी....मैने सोचा हां शायद दारू पी सकते हैं,पर शायद यह भी हो जाए के मेरे दीए पैसों से खाने को रोटी खरीद लें. उन्हे लग रहा था कि जिन बातो कि मुझे वो जानकारी दे रहे थे, मै उन बातो से अनजान हूं. कहा जाता है कि अपनी कमाई का कुछ हिस्सा दान करना चाहिये....इस बात को दिमाग मे रखते हुए ही मैने भी अपनी नौकरी लगने के बाद महिने मे एक बार कुछ रुपए दान देने कि सोची थी, और किसी ना किसी रूप मे मै उनका पालन भी कर रही थी....यह सोचते हुए कि पता नही कौन किस रूप मे आ जाए और उनकी दुआएं हमे लग जाए....क्युंकि मुझे अपनी मंजिल पाने के लिये अपनी मेहनत के साथ साथ दुआओं कि भी सख्त जरूरत है. उन्ही को समेटने की कोशिश करती रहती हूं. मै हमेशा सोचा करती थी कि कोई भी पैसे मांग रहा हो ईश्वर के नाम पर और दुआए भी दे रहा हो....तो मैने कभी यह नही सोचा कि वो पैसो का क्या करेगा...? हां इतना जरूर लगता है कि मैने उनकी मदद करके अपने लिए थोड़ी अच्छाई समेटी है, बस..... ऑफिस से वापस लौटते हुए मैने यह वाकया ''काया'' मे लिखने का तय किया, के यकीन नही हुआ कि वही दोनो फकीर मुझे फिर से दिखे.....और मैने मन ही मन यह कहा कि- हे ईश्वर! इनके द्वारा मेरे दिए पैसों का दुरूपयोग ना होवे....और जो दुआएं ये सुबह दे रहे थे.....मेरे काम आए.....मेरी तरक्की.......... मेरी खुशहाली के लिए......आमीन.......

3 टिप्‍पणियां:

  1. ham har len den par baniye ki tarh ghata munafa sochne lagte hain . de diye to de diye. sawal pane walo ki aatma ke aashish ka hai.agar daru bhi pikar tar ho gaye to aatma se aashish hi niklegi. aatma se nikli dua falti jaroor hai.theek hai na?

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद किशोर जी....आपकी इस सोच का जवाब नही और मेरे लिखे ब्लॉग को आपने ठीक उसी तरह से समझा जैसा मै इसे पेश करना चाहती थी....बस मुझे इस बात का ईंतज़ार रहेगा के मेरे अगले ब्लॉग पे आपका क्या जवाब आता है जो फिर से मुझे अगला ब्लॉग लिखने को प्रेरित करे...

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  3. blog me bada komal aur masum sa sach likha hai . aatm abhivyakti isse saral nahi ho sakti. kuchh apni counseling se related likho na. aise kisi ke bare me jiska koi kusur na ho aur aids se pidit ho gaya ho masum ho aur tumhe us par taras aaya ho. ya aisa hi kuchh aur

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