बुधवार, 20 अप्रैल 2016

मैं...और मेरी काया.........

काया....कौन  है  काया"
नहीं  जानता  मैं,कहा से  आई  है  काया"
क्यों  मेरे  जहन  पे  छाई  है  काया"
एक  सहेली  की  जुदाई  है  काया"

लाइलाज  जख्मो  की  दवाई  है  काया"
ता  उम्र  की  जैसे  कमाई  है  काया"

आख़िर  कौन  है  काया"बस  इतना  पता  है,
जिन्दगी  के  मंच  का  खेल  है  काया"
जिन्दगी  की  पटरी  पे  तेज़  रेल  है  काया"

कला  और  सुंदरता  का  मेल  है  काया"
दोस्तों  के  बीच  चटपटी  भेल  है  काया"

यादो  की  आने  वाली  हिचकियाँ  है  काया"
बच्चे  की  उठने  वाली  सिसकियाँ  है  काया"

इंद्रधनुष  के  खिलते  हुये  रंग  है  काया"
चमकते  जुगनू के हर पल  संग  है  काया"

अपने  ही  सवालातों  से  तंग  है  काया"
उड़ती  आकाश  मे  कोई  पतंग है  काया"

पुजारी  के  हाथो  की  थाली  की  रोली  है  काया"
वैसे  तो  मासूम  बहूत  ही  भोली  है  काया"

बच्पन  के  खेल  की  आँख  मिचौली  है  काया"
बच्चो  के  नन्हें नन्हें  हाथ  की  मीठी  गोली  है  काया"

चौबारे  घर  पर  बनी  हुई  एक  रंगोली  है  काया"
कही  है  ईद  तो  कही  रंगो  भरी  होली  है  काया"

दुवाओं  के  लिए  एक   फैली  झोली  है  काया"
मुस्कुराती अपनों  मे  कोई  मस्त  मौली  है  काया"

आख़िर  कौन  है  ये  काया" नहीं  जानता,
इतना  पता  है,किसी  का  नाज़  है  काया"

बीमारों  का  इक  मुक़म्मल  इलाज़  है  काया"
बंद  किताब  मे  छुपा  कोई  राज़  है  काया"

कैसे  कहूं  कौन  है , कैसी है ,इतना  पता  है,
खुद  से  ही  मुलाकात  करती  है  काया "
आईने  मे  खुद  से  बात  करती  है  काया"

खुशियों  का  जैसे  बड़ा सा  एक  थैला  है  काया"
किसी  का  अनोखा  प्यार  भी  पहला  है  काया"


किनारों  पर  बैठ  के  सोचा  करती  है  काया"
ये  ना  सोचना  किसी  से  डरती  है  काया"

छोटी  सी  बात  पर  कभी  बिगड़ती  है  काया"
चंचल  सी  है  फ़िर  भी  झगड़ती  है  काया"

आख़िर  कौन  है  काया"मैं  नहीं  जानता,
ना  मिला  हू  कभी,ना  प्यार  है, ना  दोस्त  है,

कभी  पास, मुझसे  दूर  कभी  है  काया"

मेरी  लिए  आज  भी  अज़नबी  है  काया".....


मेरी लेखनी को सराहना देती हुई इस कविता के मूल रचनाकार सुनील शर्मा जी को अंतहीन शुभकामनाओं के साथ ये कवित्त उन्हें ही समर्पित........

रविवार, 8 दिसंबर 2013

तमन्नायें...

कहीं से प्यार की बातें.....कहीं से रोने की आहटें....कहीं पसरा सन्नाटा....कहीं से खिलखिलाने की आवाज़ें....ये हॉस्टल है मेरा । एक ही छत के नीचे ना जाने कितने रंग देखने को मिलते है हर दिन....जब कभी भी कमरे से बाहर निकलो तो हर एक चेहरा नयी रंगत लिये होता है ।बस फर्क़ इतना है कि कोई बेपनाह ख़ुश होता है तो कोई बेईंतेहां मायूस....हर किसी की एक वजह है अपनी इस रंगत की....मुझे लगता है यहां हर एक को ज़रूरत है एक सच्चे दोस्त और सच्ची मोहब्बत की...... ये मन भी कितना अजीब होता है,कोई इसलिये प्यार में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि उसका मन उन पाबंदियों से आज भी बाहर नहीं आ पाया है जो घर से लगाकर भेजी गयी थी....कोई दोस्ती तक करने को आज़ाद नहीं है क्योंकि उन्हे बड़ों की सीख रह-रह कर याद आ जाती है....लेकिन कोई भी ऐसा भी नहीं है जो अपने ही मन से प्यार या दोस्ती में ना पड़ना चाहता हो...बस किसी दूसरे की तय की गयी बंदिशों को ढोता जा रहा है...क्यूं...पता नहीं...या पता है....मुझे भी और उनको भी । इन सबके बीच और भी कोई है जो खुले पंछी की तरह आज़ाद है...उड़ रहा है....घूम रहा है...इतनी उंची उड़ान भरने को तैय्यार है जिसकी कल्पना ख़ुद उसने भी कभी नहीं की होगी ।
कितने ख़ूबसूरत लगते हैं यह सब मुझे....हर बार चेहरों पर नये भाव और नये तेवर लिये हुये....और मैं हर बार इन सबको उतने प्यार और मुस्कुराहट से देखती हूं और चाहती हूं कि वो सब आज़ाद रहें...ख़ूबसूरत रहें...उम्मीदों से भरे हों...अपनी हर तमन्ना पूरी करें... उन सब की ख़ुशहाली की दुवाओं के साथ....

                                             मैं....काया 

बुधवार, 8 जून 2011

अंधेरे मे.....


एक खबर सुनते ही अचानक उन लोगो कि छोटी सी दुनिया मे खुशी कि लहर दौड़ गई...और ऐसा हो भी क्यों ना...वजह जो खास थी....पन्द्र्ह साल बाद किसी के घर खुशीयां आई...एक छोटे से बच्चे के रूप में...पर यह खुशी कि खबर एक खटास साथ लेकर आई और मेरे लिए एक सवाल छोड़ गई....हुआ कुछ यूं के कुछ माह पूर्व एक गर्भवती महिला मालती(बदला हुआ नाम) मेरे पास आई...एच.आई.वी एड्स कि जांच करवाने..... मेरे काम का एक ज़रूरी पहलू यह होता है कि मुझे जांच करने से पहले क्लाइंट को एच.आई.वी. एड्स कि पूरी जानकारी देनी पड़ती  है...फिर उसकी रज़ामन्दी के बाद जांच करनी पड़ती है...उस महिला कि जांच कि गई....और परिणाम पॉज़िटिव आया..मैने तुरंत आगे कि कार्यवाही शुरू कर दी...क्युंकि महिला गर्भवती थी तो उसके साथ साथ उसके होने वाले बच्चे को भी खतरा था...तो मैने उसे आगे के ईलाज के लिए दुर्ग(दुर्ग जिला चिकित्सालय मे एच.आई.वी पॉज़िटिव लोगो का उपचार किया जाता है)रवाना कर दिया...और उसके पति संतोष को जांच के लिए बुलवाया......पता चला कि वह रोजी मजदूरी के लिए शहर से बाहर गया हुआ है...मुझे मन ही मन संतोष पर बेहद गुस्सा आया....मै खुद से ही बाते करने लगी के संतोष जैसे और भी कई लोग इसी तरह कई महिनों तक घर से बाहर रहते हैं और अपने साथी के साथ बेवफाई करते है और वापस घर जाकर तोहफे के रुप मे ये बिमारी अपनी पत्नि को देते है....मेरी चिंता और बढ़ गई...मुझे जल्द से जल्द उसकी जांच करनी थी,क्युंकि जाहिर सी बात है.....मालती को यह रोग उसके पति संतोष से ही मिला है....मैने उसके गांव कि नर्स से कहा कि जैसे ही वह आ जाए उसे मेरे पास भेज दे...इस बात को कुछ माह हो चले है....और अचानक तीन दिन पहले वह मेरे पास आया...चेहरे पर मुस्कुराहट लिए हुए उसने मुझे खबर दी कि उसके यहां बेटा हुआ है...मैने उसे समझाया और तुरंत जांच करवाने के लिए राजी किया...पर ये क्या ? उसकी रिपोर्ट तो निगेटिव थी,मै चौंक गई...मै कुछ वक्त तक शांत रही और धीरे धीरे सारी परते मेरे सामने खुलने लगी.....कि पन्द्रह साल बाद इनके घर औलाद हुई,..मालती पॉज़िटीव है पर संतोष निगेटीव...इसका मतलब औलाद संतोष की नही है......इसका मतलब मालती कि गर्भ मे किसी और का बच्चा था और ये रोग भी वह कहीं और से लेकर आई....क्योंकि अगर ये बच्चा संतोष का होता तो.....वो भी पोज़ीटिव होता....पन्द्रह् साल से मालती की कोई औलाद नही थी......और अब वह मां भी बनी तो उसके बच्चे का कोई भविष्य नही....क्या संतोष कभी पिता नही बन सकता था या फिर मालती ने अपने पति से बेवफाई कि थी...या फिर यह कोइ मौन समझौता रहा हो दोनो के बीच का.......खैर बात चाहे जो भी रही हो.....मेरे इतना सब जानते हुए भी मै यह सब सच संतोष को नही बता सकती.....क्युंकि मेरी एक बात से सालो बाद उसकी ज़िन्दगी मे आई खुशी पल मे खत्म हो जाएगी.......क्या मुझे इस बात को सोच के ही शांत हो जाना चाहिए कि मालती कि एक बेवफाई उस घर मे ढ़ेर सारी खुशियां लेकर आई है.......और संतोष..... उस नादान को मैने ये बताया के उसे कोई तकलीफ नही है और वो कुछ महिने बाद आकर एक बार फिर से अपनी जांच करवा ले......तो उसने हां मे सिर हिला दिया......और उसी मुस्कुराहट के साथ वहां से चला गया.....मैने सोचा के अगर ये आदमी थोड़ा सा भी पढ़ा लिखा होता तो मेरे एड्स फैलने के चार कारण बताते ही वह सारा सच खुद ब खुद समझ जाता.......कई बार जानकारी का अभाव और अनपढ़ होना भी किसी के लिये कितना फायदेमन्द होता है .............

रविवार, 5 जून 2011

दुआए....


रोजाना कि तरह आज भी मै अपने ऑफिस जाने तैयार हुई.जो कि मेरे शहर से 40 कि.मी. दूर एक छोटी सी जगह डोंगरगढ़ है.रोज कि तरह मेरी ट्रेन आई...कई साल कि निरंतर प्रैक्टिस ने हम अप-डाउनरो को बैठने कि जगह ढूंढ्ने मे माहिर बना दिया है,जगह कि तलाश करते हुए मेरी निगाह एक खाली जगह पर टीक गई,और ट्रेन चल पड़ी....कुल नौ पुरूषो के बीच मै और एक लड़की भी थी,जो शायद उन्ही मे से किसी एक कि बेटी थी.उसके पिता ने मुझसे सवाल किया बिटिया कही जॉब करती हो...? मैने मुस्कुराते हुए हां मे सिर हिला दिया....उसी महाशय ने मुझे बैठने कि जगह जो दी थी....थोड़ी ही देर बाद वही रोज कि तरह मांगने वालों कि लाइन लगने लगी...सबसे पहले दो मुस्लिम फकीर आए,जो हाथ मे हरी चादर लेकर जोर-जोर से सारी दुआएं पड़ रहे थे....जिसकी सच मे मुझे जरूरत है....मसलन....बड़ी नौकरी,तरक्की,रूतबा आदि....तभी मैने अपने पर्स मे पड़े सबसे छोटे नोटो के बारे मे सोचना शुरू किया....पर्स मे देखा तो बड़े नोटो के बीच मे एक दस का नोट और एक रूपये का सिक्का मिला.मैने मन ही मन सोचा इतनी बड़ी दुआओं को पाने के लिए एक रुपया थोड़ा कम है,मैने झट से दस का नोट निकाल कर उनकी चादर मे आमीन बोलते हुए डाल दिया.....तभी दोनो फकीरो मे से एक ने बिस्मिल्लाह कहा.....शायद आज कि यह उनकी पहली भेंट रही होगी.मै भी मन ही मन खुश हुई चलो सबसे पहली और ताजी दुआएं मुझे ही मिलेगी. बस क्या था मुझे जगह देने वाले महाशय को यह जरा भी पसन्द नही आया. उन्होने मुझे समझाना शुरू किया - 'क्या बात है बहुत दया दिखा रहे हो'.....ये तो इनका रोज का धन्धा है,पूरे पैसों कि दारू पी जाते है....नकली लोग है....और बाकि बैठे आठ लोगो ने भी उनका भरपूर साथ दिया. मुझे वो सारी बाते समझाने लगे जो लोगों को पैसे देते वक्त मै पहले भी सुन चुकी हूं.दुसरे अंकल ने कहा 'अब देखना तुमने जो पैसे दिये है ना उससे वो दारू पी जाएंगे, जब उन्हे लगा कि वो मुझे समझाने मे सफल हो गये है,तो वे दूसरे विषय पर बात करने लगे...उनकी बातो को सुनकर मै मन ही मन मुस्कुराने लगी....मैने सोचा हां शायद दारू पी सकते हैं,पर शायद यह भी हो जाए के मेरे दीए पैसों से खाने को रोटी खरीद लें. उन्हे लग रहा था कि जिन बातो कि मुझे वो जानकारी दे रहे थे, मै उन बातो से अनजान हूं. कहा जाता है कि अपनी कमाई का कुछ हिस्सा दान करना चाहिये....इस बात को दिमाग मे रखते हुए ही मैने भी अपनी नौकरी लगने के बाद महिने मे एक बार कुछ रुपए दान देने कि सोची थी, और किसी ना किसी रूप मे मै उनका पालन भी कर रही थी....यह सोचते हुए कि पता नही कौन किस रूप मे आ जाए और उनकी दुआएं हमे लग जाए....क्युंकि मुझे अपनी मंजिल पाने के लिये अपनी मेहनत के साथ साथ दुआओं कि भी सख्त जरूरत है. उन्ही को समेटने की कोशिश करती रहती हूं. मै हमेशा सोचा करती थी कि कोई भी पैसे मांग रहा हो ईश्वर के नाम पर और दुआए भी दे रहा हो....तो मैने कभी यह नही सोचा कि वो पैसो का क्या करेगा...? हां इतना जरूर लगता है कि मैने उनकी मदद करके अपने लिए थोड़ी अच्छाई समेटी है, बस..... ऑफिस से वापस लौटते हुए मैने यह वाकया ''काया'' मे लिखने का तय किया, के यकीन नही हुआ कि वही दोनो फकीर मुझे फिर से दिखे.....और मैने मन ही मन यह कहा कि- हे ईश्वर! इनके द्वारा मेरे दिए पैसों का दुरूपयोग ना होवे....और जो दुआएं ये सुबह दे रहे थे.....मेरे काम आए.....मेरी तरक्की.......... मेरी खुशहाली के लिए......आमीन.......

रविवार, 29 मई 2011

काया ही क्यो...


काया, एक जरिया है...मेरी सोच का..मेरी भावनाओ का...मेरे अंतर्मन का.....लोगो से मिलना,बाते करना लगभग सब बन्द कर रखा है मैने.....कारण दो ही हो सकते है.या तो दुनिया मुझे पसन्द नही करती या शायद मै दुनिया को....

कारण जो भी हो,मै अकेली हू....तन्हा हू..खुश भी हू....और शायद थोडी दुखी भी.ऐसे वक्त मे कोई तो हो जिससे मै बात कर सकू....कुछ कह सकू.....लिखना मेरा शौक नही है....और नाही मेरा पेशा...पर अब अकेलेपन मे इससे बेहतर मेरा कोइ साथी भी तो नही....बचपन से ही स्वभाव से अंतर्मुखी होने के कारण मै अपनी मन कि बाते लिखा करती थी या कहे बताया करती थी....मेरी सबसे करीबी और सच्ची दोस्त "ऋचा" को..यही नाम रखा था मैने अपनी डायरी का..वो मेरे बारे मे सब कुछ जानती थी.और मैने उसे सख्त हिदायत भी दे रखी थी कि ये बाते अपने आप मे ही समेट के रखे.और वो भी मेरी भावनाओ का ख्याल रखते हुए अपने आप को सहेजे..चुप चाप रहा करती थी...पर कई बार मेरे अपने लोग मेरे मन कि बाते जानने के लिये उसे परेशान किया करते और ऋचा भी न चाह्ते हुए अपने राज खोलने पर मजबुर हो जाती.पर वो कर भी क्या सकती..वो थी तो एक डायरी मात्र..जब मुझे इस बात का पता चला तो मैने ना चाहते हुए भी उसे अपनी जिन्दगी से बेहद दूर कर दिया या यु कहे मैने लिखना बन्द कर दिया..और ऋचा मुझसे दूर चली गई...मैने सोचा था कि जब कभी भी लिखना शुरू करुंगी तो अपनी डायरी का नाम काया ही रखुंगी क्युकि ऋचा कि जगह कोइ ले नही सकता...और अब कई सालो बाद फिर से कुछ लिखने का मन है..और एक बार फिर से मेरी कलम कुछ कहना चाहती है.."काया" के रूप मे...जी हा यही है मेरी नयी डायरी..जो भविष्य मे मेरे कुछ खास अनुभवो के साथ आपके सामने आती रहेगी...